पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भट्ट निबन्धावली महामलिन आकार और कसोफ मैले-कुचैले कपड़ो को देख लोग यही अनुमान करते होगे कि यह कोई अत्यन्त निष्किंचन परम दरिद्र होगा, यह किसी को क्या मालूम कि कालं का खजाना हमी अपने नीचे गाडे बैठे हुये हैं या कुवेर की संपति हमारे ही पास गिरो है। "दृढ़तरनिवचमुष्टेः कोपनिषण्णस्य महामलिनस्य । कृपणस्य कृपाणस्यच केवलमाकारतो भेदः ॥ अस्तु, ईमानदारी और उदार भाव को काली के खप्पर में झोंक इसे भाँति रुपया जोड़ यमराज की पहुनाई के लिये हम सिधार गये। दोही एक पुश्त के उपरान्त हमारे वंशधगे में ऐसे हुये जिन्हे युवा अवस्था आने पर रुपया फूकने का जोश सवार हुअा। तमाशबीनी और शगब खोरी का शौक चर्राया, मटियाबुर्ज के नौवाब बनने का हौसिला हुश्रा, मीर शिकारो को काठ का उल्लू हाथ लगा, भाँड़ भगनिये खुशामदी टट्टो की बन पड़ी। चुटकी बजा बजा लगे भालू सा उमे नचाने "भइया साहब. आप इन दिनो अमीरी और रियासत मे शहर की नाक हैं" एक दूसरा पाय मुक के सलाम के बाद 'हुजूर, नौवाब साहब के खोजासरा ने आप के लिये तुहफे भेजे हैं" दूसरा "हाँ भैया कहत तो ठीक बटले-" भैया साहब फूल कर कुष्पा सा हो गये इनाम इकराम में लगे रुपया दोनो हाँथ उलचने। इस बात के जोश में मरे हुये हैं कि हमारे बराबर का अमीर दूसरा कोई न सुनने में आवे । बरस ही छ महीने में कदयं वावा की कमाई जिसे उसने श्राधा पेट खाय न जानिये कोन कौन सा अन्याय और दुराचार से इकट्ठा किया था ग्वोय बहाय साफ कर डाला। कृपण का धन जिस ढंग से पाया था उसी-लंग पर चला गया। सच है:- "यदि नारमान पुत्रेषु नच पुनपुनप्नृषु । नवेवं चरितो धर्मः क्तुभवति नाम्यया ॥ पुण्य या पाप कर्म जो मनुष्य में बन पड़ता है पहिले ना इसी पार ग पुण्य करने वाले पर श्राता है कदाचित किसी कारण उसपर