७६ भट्ट निबन्धावली भाव संशुद्धि अर्थात् लोगों के साथ बर्ताव मे माया कपट कुटिलता छल छिद्र का न होना । अथवा क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य जो मन को मैला करने की बड़ी सामग्री हैं उनसे दूर रहना इत्यादि सब मन के गुण हैं । उसी को मानस तप भी कहेगे। मन के और भी गुण सहानुभूति, आश्चर्य कुतूहल पूर्वक जिज्ञासा, प्रेम बुद्धिया प्रतिभा, विचार या विवेक आदि हैं । सहानुभूति यद्यपि मन की सौम्यता के अन्तर्गत है किन्तु सहानुभूति का लेशमात्र भी अकुरित हो चित्त में रहना जन समाज के लिये बड़ा उपकारी है । उपकार के प्रति उपकार सहानुभूति न कहलावेगी वरन् वह तो एक प्रकार की दूकानदारी और लोक रजन है । सच्ची सहानुभूति वही है कि हम अपने सहवरगी या साथी को दुखी देख दया मन मे लाय उसके दुख दूर करने मे तन मन धन से प्रवृत्त हों। हमारे यहाँ इन दिनो सहानुभूति का बड़ा अभाव है। इसी कारण हम नीचे गिरते जाते हैं। अगरेजी शिक्षा के अनेक गुणो मे यह भी एक उत्कृष्ट गुण है कि अच्छा पढा-लिखा अपने हम-वतन दोस्तों के साथ हमददी करने में नहीं चूकता । अनेक प्रकार के दान इसी बुनियाद पर रक्खे गए हैं कि सहानुभूति वाले मानसिक गुण में पुष्टता पहुंचे। किन्तु वह अव केवल यश प्राप्ति के लिए रह गया । इसमें सदेह नहीं अव भी दान जितना हमारे यहाँ दिया जाता है किसी देश मे इतना नहीं दिया जाता पर सहानुभूति की बुनियाद पर न रहने से वे-फायदा है और राख मे होम के बराबर है। आश्चर्य और कुतूहल दोनो सीधे और भोले चित्त के धर्म हैं । लड़कों को छोटी छोटी बातों पर कुतूहल होता है और चित्त का कुतूहल दूर करने को वह अनेक ऐसे प्रश्न करता है जिस पर बहुधा हॅसी आती है। तो कुतूहल शान की वृद्धि का एक द्वार ठहरा | लड़का पाँच वर्ष की उमर तक में जो कुछ सीखता है वह तमाम ज़िन्दगी भर में नहीं सीखता। च्यों ज्यों वह बढ़ता जाता है और चित्त की सिधाई कम होती जाती है उसकी जिज्ञासा भी घटती जाती है। प्रेम भी सहानुभूति ही का एक
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