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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/७५

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१७-मन के गुण भगवान् कृष्ण चन्द्र ने गीता मे मानस तप को लक्ष्य कर मन के गुण इस भांति कहा है :- मनः प्रसादः सौम्ययत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ मनःप्रसाद अर्थात् मन की स्वच्छता, सौम्यता या सौमनस्य जो बहुधा तभी होगा जब बाहरी विषयों की चिन्ता मे मन व्यग्र और व्याकुल न हो । बाहर से विनीत और सौम्य बनना कुछ और ही बात है मन का सौम्य कुछ और ही है। जिसकी बड़ी पहचान एक यह भी है कि वह किसी का अनिष्ट न चाहेगा वरन् सबों के हित की इच्छा रक्खेगा। तीसरा गुण मन का श्रीकृष्ण भगवान् ने मोन कहा है मौन अर्थात् मुनि भाव-एकाग्रता पूर्वक अपने को सोचना कि हम कौन हैं जिसका दूसरा नाम निदिध्यासन भी है । वाक्-सयम न बोलना या कम बोलना भी मन के सयम का हेतु है । मुनि भाव का लक्षण श्रीमद्भागवत मे इस तरह पर दिया गया है :- मुनिः प्रसन्नो गंभीरो दुर्विगाहयो दुरत्ययः । अवन्त पारो हयक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः ॥ मुनि वह है जो सदा प्रसन्न अर्थात् विमल चित्त हो, गभीर अर्थात् जिसकी थाह लेना सहज काम न हो, न जिसका पार किसी ने पाया हो, जिसे कोई क्षुब्ध चलायमान न कर सके, ये सब गुण स्थिर सागर के हैं, सागर के सदृश जिसका मन हो वह मुनि कहा जा सकता है, मौन से सब बाते आदमी मे आ सकती हैं। आत्म विनिग्रह अर्थात् मन जो बड़ा चचल है उसे वृत्तियो के निग्रह करने से रोकना । सबसे बड़ी बात