मन के गुण ७७ रूपान्तर है। प्रतिभा, प्रतिपत्ति, संवित् आदि शब्द लगभग एक ही अर्थ के बोधक हैं और ये सब बुद्धि के धर्म हैं मन के नही। किन्तु मन पर उन सबो का असर पहुंचता है इसलिये हम उन्हे मन के अनेक गुणो मे मानते हैं। ऐसे ही विवेक और विचार भी बुद्धि के धर्म हैं किन्तु विचार के द्वारा बुद्धि के तराज़ पर हम उसे तौलते हैं, जो कुछ परिणाम उस तौल का होता है उसे मन मे स्थिर कर तब आगे बढ़ते हैं। मन यद्यपि ज्ञान का आश्रय है पर उस ज्ञान को सत् या असत् निर्णय करा देना बुद्धि ही का काम है इसलिये विवेक और विचार के बिना निश्चयात्मक शान कभी होगा ही नही । मन जो बड़ा चंचल है उसका चाचल्य रोकने को विचार बड़ा उपयोगी है इसलिए ऊपर के श्लोक मे कथित आत्म- विनिग्रह के ये सब अग हुए। आत्मविनिग्रह जिसका दूसरा नाम संयम मे पूरा पूरा हो तो सिद्धावस्था तक पहुँचने मे फिर अड़चन क्या रही। दूसरे यह कि संयमी को कठिन से कठिन काम करना सुगम होता है। साराश यह कि ऊपर कहे हुए मन के सब गुण पारलौकिक या आध्यात्मिक उन्नति के साधन करने वाले तो हई हैं हमारी इस लोक की उन्नति भी उनसे पूरी पूरी हो सकती है। इन सब उत्कृष्ट गुणो मे एक भी जिसमे हो वह मनुष्यों मे श्रेष्ठ और ऊँचा दरजा पाने का अधि- कारी अवश्य बन सकता है। -मार्च १९८ भी है मनुष्य
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/७७
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