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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/८०

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८२ भट्ट निबन्धावली "प्राप्ते च पोड़से बर्षे शूकरीप्यप्सरायते" यही समय ऐसे अल्हड़पने का होता है कि इसमे यावत् प्रलोभन सब उमड़ उमड़ इधर ही आ टूटते हैं। इस तरुणाई की कसौटी में कस जाने पर जो कही से किसी अंश मे न डिगा तो चरित्र की विजय वैजयन्ती उसी के गले का हार होती है। अवसान मे जब यह प्रौढत्व विदा हुआ तब वह सलोनापन न जाने कहाँ जा छिपता है ? गाल चुचक जाते हैं बगुला की चोच सी लम्बी नासिका; खोड़हा मुंह; सूप से लम्बे लम्बे कान, गजा सिर कैसा बिलखावना मालूम होता है कि प्रेत के आकार सदृश देखते भय उपजता है। शुष्क-चर्म-पिनद्ध-अस्थि- शेप-कंकाल वीभत्स का साक्षात्कार सा किसमे न विभीपिका और घृणा पैदा करता होगा। ऐसा ही हमारे प्राचीन पार्यों की सभ्यता का जब उदय था उस समय उसकी बाल्य अवस्था थी, उस समय जो जो प्राकृतिक घटनाये (नेचरल फिनमेना) उनके दृष्टि-पथ की पहुनाई में आई उन्हें देवी गुण विशिष्ट, मनुष्य शक्ति वाह्य और इन्द्रियातीत समझ ईश्वर मान उनकी स्तुति करने लगे । जैसा ऋग्वेद में (डान) उपा को देवी कह उसकी कमनीय कोमल मूर्ति के वर्णन मे कवित्व प्रतिभा को छोर तक पहुंचा दिया। इसी तरह सूर्य में गरमी और उसका विशाल विम्ब (होरीजन) क्षितिज से ऊपर को उठते देख, मूर्य की गरमी और प्रकाश से पौधों को उगते और बढते हुये पाय चिरकाल तक तमारि सूर्य ही का सविना, अर्थमा श्रादि विशेषण पदो में गुण गान करते रहे। "उद्वयं तमसस्परिस्वः" इत्यादि कितनी ऋचाये हैं जिन्हे सन्ध्योपासन के समय हम नित्य पढ़ा करते हैं। इसी तरह मेघमाला में क्षण सौहदा विद्युत की चमक-दमक देख ऐरावत् और इन्द्र इत्यादि की कल्पनाओं से उननं दैवी शक्ति का आरोप कर उन उन घटनाओं का अनेक गुण गान करते रहे। पीछे जब उनकी सभ्यता अपनी प्रौढ़ दशा में पाई तो आत्मा तथा मष्टि के आदि कारण का