पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/८१

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१६-आदि मध्य अवसान सकल सर्जित पदार्थ जो वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त अनुसार जीव कोटि मे गिने गये हैं और जिनका जीव कोटि से किसी तरह का सम्बन्ध है उनकी आदि, मध्य, अवसान यह तीन अवस्था है । इन तीन अवस्थात्रों में आदिम और मध्यम अवस्था सदा स्पृहणीय और मन को हरने वाली है। अवसान अर्थात् अन्तिम अवस्था ऐसी ही किसी की सोहावनी होती है वरन् अन्त की अवस्था बड़ी घिनौनी, रूखी और किसी के उपकार की नही होती। आरम्भ या आदि हर एक का बहुत कुछ आशा जनक और मन भावना होता है, मध्यम या प्रौढ अवस्था उसी आशा को फलवती करने वाली होती है । पौधा जब लगाया जाता है या बीज जब प्रस्फुटित हो प्ररोह के रूप मे रहता है उस समय कटीले वृक्ष भी सुहावने लगते हैं। प्रौढ अवस्था कुसुमोद्गम के उपरान्त फलो से लद जाने की है। पुराना पड़ने पर वही पेड़ जब कम फलने लगता है बाग के माली को उसके बढाने या सीचने की वैसी मुस्तैदी नहीं रहती जैसी नये पौधों के लिए। जीवधारियो मे देखो तो दुधमुंहा शिशु मनुष्य का हो या किसी जानवर तथा चौपायों का हो ऐसा प्यारा लगता है कि यही जी चाहता है कि नेत्र उसकी मुग्ध मुखच्छबि को अनिमेष दृष्टि से देखता ही रहे। वही तरुणाई की प्रौढ अवस्था आते ही जवानी की नई उमग मे भरा हुआ दर्पान्ध कोई कैसा ही कठिन काम हो उसमे भिड़ जाता है और जब तक कृत कार्य न हो उससे मुंह नहीं मोड़ता । नस नस मे जब कन्दर्प अपना चक्रवर्तित्व स्थापित कर देता है तब कुरूप भी सुरूप, निर्जीव भी सजीव बोध होता है। सुषमा की यावत् सामग्री सब सोलहो कला पूर्ण हो जाती है। लवनाई और सलोनापन अपनी सीमा को पहुँच जाता है। कहा भी है, -