महत्व ८६ N दाता का आसरा लै दोष भी गुण हो जाते हैं जैसा मेघ मे काला- पन भी काले मेघ ऐसा स्तुति-पक्ष मे ग्रहण कर लिया जाता है। यश ससार मे चाहता हो तो दान शील हो । सिद्धान्त है "नदाने न बिना यशः' । दृढता, स्थिर निश्चय, निराकुलत्व, हर्ष-शोक मे एक भाव सब महत्व के चिन्ह हैं। उदेति सविता रक्तो रक्त एवास्तमेतिच- संपत्तीच विपत्तौच महतामेकरूपता" सूर्य उदय के समय मे रक्त वर्ण होते हैं वैसा ही अस्त मे भी- तो निष्कर्ष यह हुआ कि बढ़ती और घटतो दोनो मे एक सा रहना बड़प्पन की निशानी है। सब से बड़ा महत्व उसका है जो परोपकारी है जैसा बगाल मे विद्यासागर महाशय हो गये। नीचा काम, नीचे ख्याल की ओर जो कभी प्राणपण के साथ भी मन न दे सच्चा महत्व उसी का है । महत्व का निबहना सहज बात नहीं। अनेक बार की कसोटी मे कसे जाने पर जो असिधारावलेहन "तलवार की धार को जीभ से चाटना" रूप व्रत मे पक्का ठहरता है उसी को सर्व साधारण महान् की पदवी देते हैं। सब से सिरे का महत्व उसी का माना जायगा जो अपनी हानि सह कर भी देश के उद्धार मे लग रहा है। पर भारत मे इसकी बड़ी त्रुटि है । योरोप के प्रत्येक देशों की अपेक्षा यहाँ ऐसे मनुष्य बहुत कम हैं । अपना स्वार्थ छोड़ परार्थ साधन करने वाले सत्पुरुष तो बिरले देश मे कोई एक दो हों या न हों। केवल अपना ही पेट न भर 'गेहूँ के साथ वथुआ सीच जाने वाली कहावत की भाँत भी परार्थ साधक नही हैं। हाँ ऐसे अलबत्ता बहुत हैं जिनके बारे मे यह कहावत चरितार्थ होती है :- "काकोपि जीवति चिराय वलिं च भुक्ते'- 6 अगस्त; १८६
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