९२ भट्ट निबन्धावली पाठक, अब आप अपनी कहिये आप किस श्रेणी मे नाम लिखाया चाहते हैं । अज्ञ तो आप हैं नही, ईश्वर करे अशता आप के विरोधियों के हिस्से मे जा पड़े। मै तो यही समझता हूँ कि आप बहुज्ञ दूरदशी चतुर सयाने हो तो निश्चय मेरी बात का विश्वास आपको होगा। मेरे इस निवेदन को सर्वथा न झूठ मानोगे । मेरा पत्र इस समय बड़ी संकीर्ण दशा मे आ गया है वर्ष भी पूरा हो गया । विशेष सहायता इस दुर्भिक्ष के समय नहीं दे सकते तो अपना अपना मूल्य तो कृपा कर भेज मुझे उपकृत और वाधित कीजिये। निश्चय मानिये केवल संकीर्णता है जिससे मै प्रतिमास ठीक समय पर आप से नही मिल सकता। आप बुद्धिमानो की कोटि के है या उससे इतर वाली कोटि के, इसमे आपकी परख भी भरपूर है। यह मानना ही है जिससे ईश्वर की ईश्वरता कायम है नहीं तो ईश्वरता के अनेक अनर्गल गड़बड़ काम देख जिससे पग पग में विषम भाव और निपुणता प्रगट हो रही है कौन ईश्वर के अस्तित्व मे विश्वास करता। कहाँ तक कहे मान लेने पर संसार के यावत् काम आ लगे हैं "मानो तो देव नहीं पत्थर" मानना यह अद्भुत ईश्वरीय शक्ति न होती और किसी का कोई विश्वास न करता तो यह जना- कीर्ण-जगत् जीर्ण-अरण्य-सा हो जाता। यदि मानना और मनाना यह दोनों वाते संसार से निकाल ली जाय तो इस नश्वर जगत् मे कौन सा अानन्द बच रहा जिसकी लालच से सब तरह की मौझट और अनेक प्रकार की ऊँची नीची दशा भोग भाग भी जीने से लोग नहीं ऊबते। सच तो यों है कि मानने का भाव उठा दिया जाय तो यह दुनिया रहने लायक न रह जाय । हमे लोग प्रामाणिक महात्मा बुजुर्ग मानें और उदाहरण में रक्खें इसीलिये चरित्र संशोधन किया जाता है। बुद्धिमान मनुष्य सब तरह का कैश सहकर भी चरित्र में दाग नहीं लगने देते। हम नेक नाम रहे और सब कोई हम मान इसीलिये राजा प्रजा पर अन्याय करने में अपने को बचाता है, धनवान् गरीबों को सहारा देते
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/९०
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