पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

९८ भट्ट निबन्धावली उससे बढ़ के कोई सुख हई नहीं इत्यादि । जिस वस्तु को हम दुःखद मान उससे घिनाते हैं वह भी प्रकृति के नियम अनुसार ईश्वर की सृष्टि मे बड़े ही काम की है। तो निश्चय हुअा वास्तव मे सुख दुःख का अस्तित्व कल्पित है। हमारा मन जिस भावना से जिसे ग्रहण करता है उसी भावना का नाम सुख अथवा दुःख है । गभीर बुद्धि वाले विचारवान् का यह काम न समझा जायगा कि थोड़ा सा भी अपने प्रतिकूल होने से विकल हो धैर्य को पास फटकने का अवसर न देना और उस व्याकुली मे भाग्य, अदृष्ट और ईश्वर पर समस्त दोष आरोपित कर देना। यदि अदृष्ट या ईश्वर का यह सब दोष ठहराया जाय तो उसके प्राकृतिक नियम किस लिये रक्खे गये हैं। प्रकृति के अनुकूल जो कुछ है वह कभी दुःख का हेतु होगा ही नही वरन् प्रकृति देवी की विश्व-विमोहिनी अपरिमित व्यापकता मे सब कुछ समीचीन और अच्छा ही अच्छा है। ईश्वर की सृष्टि मे निष्प्रयोजन तो कुछ हई नहीं, न कोई काम या घटना निष्प्रयोजन होती है। ज्ञानातीत होने से उसका भेट या मर्म हमारी अोछी बुद्धि में नहीं आता तो यह हमारी ही अल्पजता का दोष है। ईश्वर को सर्वश, सर्वनियन्ता, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् आदि लड़ी के लड़ी विशेषण युक्त अपना प्रभु, उत्पादन पालन और संहारकर्ता मान उसे दोष लगाना कैसी अदूर- दर्शिता और मूर्खता है। इससे सुख दुःख में समभाव का होना ही परम सुख या सच्चा सुख है; योग सिद्धि का प्रधान अंग, शान्ति लाभ का एकमात्र सहायक और स्थिर धी का मुख्य लक्षण है- "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागमयक्रोधःस्थिरधीमुनिरुच्यने" ॥ यह सुख दुःख की दशा महामना, उदार चेता बड़े लोगों के पहिचान की एक कसौटी है- "संपत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम् । प्रापरसुच महाशैलशिलासंघातककंगम् ॥" -