पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१०

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भूमिका।

संतुष्टः कमताधिपस्य कविता माकर्ण्य तद्वर्णनं
श्रीमत्पंडित राज पंडितजगन्नाथो व्यधासीदिदम्॥

इससे स्पष्ट होता है कि उसके पिता का नाम पेठुभट्ट अथवा पे रमभट्ट और माताका लक्ष्मी था। उसने गुरुदीक्षा पिताही से प्राप्त की थी इसका पिता महाविद्वान् था, उसने सर्व शास्त्रोंका परिशीलन वाराणसीमें अनेक पंडितोंसे किया था। जगन्नाथरायने विद्याध्ययन अपने पितासे किया और भली प्रकार शास्त्राकलन जब होगया तब दक्षिण भारत वर्षके 'तंजाउेर' नामक संस्थान में जीविका स्वीकार की परंतु वहां उसका अनादर हुआ ऐसा उसके अश्वघाटी काव्य के इस श्लोक से स्पष्ट होता है।

खंजायितोंधिमति गंजाऽपरोपि वत संजायतेत्र धनद
संजा घटीति गुण पुंजायि तस्य न तु गुंजामितं च कनकं।
किं जाग्रती जयसि किं जानती स्वपिपि सिंजाननूपुरपदे
तंजापुरेशि नवकंजाक्षि साधु तदिदं जातु वा किमु शिवे[१]

इस कारण स्वदेश परित्याग करके उसने उत्तरकी और पर्यटन किया और भिन्न भिन्न संस्थानों में कालक्षेप करता हुआ देहली की ओर गया। वहां इससे और एक महम्मदमतानुयायी महात्मा से धर्म विषयक विवाद हुआ जिसमें पंडितराजने अपनी वाक् चातुर्यतासे विजय पाई। इस प्रकार उसकी कीर्ति प्रति दिन प्रवर्द्धित होने लगी, यहां तक कि वह बादशाहका आश्रित नियोजित किया गया जहां उसने स्वविद्याबल से महान् मान पाया।

८ जगन्नाथराय ने देहली में फारसी भाषा भी सीखी थी। उसका रचा हुआ संस्कृत-फारसी मिश्रित ग्रंथ सुनने में आया है। पंडितराज बड़े विलासी और रसिक थे। यह उनकी बहुश्रुत आख्या-


  1. तंजोर।