पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१०७

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विलासः२]
(८७)
भाषाटीकासहितः।

नता के कारण कलंकित हो जावैगा और तब चंद्र की सादृश्यको प्राप्त होवैगा यह भाव)

अलंकर्तुं कर्णौ भृशमनुभवंत्या नवरुजं ससी
त्कारं तिर्यग्वलितवदनाया मृगदृशः।
कराब्जव्यापारानतिसुकृतसारान् रसयतो जनुः सर्वं
श्लाघ्यं जयति ललितोत्तंस भवतः॥५५॥

हे मनोहर कर्णकुंडल! (तुझे) श्रवणमें धारण करनेके समय सीत्कार [सिसकना] करते हुए नूतनोत्पन्न व्याधि को भले प्रकार अनुभव, (तथा) मुखको तिर्यक[१] करनेवाली सुलोचनी (नायिका) के महत्सुकृती करकमलके व्यापारों को तुझ स्वाद लेने वालेका जन्म प्रशंसनीय है! (कर्णछेदन में नायिका जो जो व्यापार करती है सो सो ओष्ठ देशन समयमें भी करती है इस से प्रस्तुत कर्णकुंडल वृत्तांत अप्रस्तुत अधरखंड करनेवाले पुरुषके वृत्तांत में मिलनेसे 'समासोक्ति' अलंकार हुआ)

आयातैव निशा निशापतिकरैः कीर्णं दिशा-
मंतरं भामिन्यो भवनेषु भूषणगणैरंगान्यलंकुर्व-
ते। मुग्धे मानमपाकरोषि न मनागद्यापिरोषे-
ण ते हा हा बालमृणालतोऽप्यतितरां तन्वी
तनुस्ताभ्याति॥२६॥


  1. वक्र-टेढा।