पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१०८

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(८८)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

हे मुग्धे! रात्रि आई; निशाकर की किरणें दिशाओं में फैल गईं; स्त्रियां (अपने अपने) घरों में आभूषणों से अंगोंको अलंकत करनेलगीं? (ऐसे समय में जो) अब भी तू मान को कुछ कम न करेगी तो रोष से हाय! हाय! यह तेरा बाल मृणालसे भी अतिशय कश शरीर संतप्त हो जावैगा!

वाचो मांगलिकीः प्रयाणसमये जल्पत्यनल्पं
जने केलीमंदिरमारुतायनमुखे विन्यस्तव-
काम्बुजा। निःश्वासग्लपिताधरं परिपतद्वाष्पा-
र्द्रवक्षोरुहा बाला लोलविलोचना शिव शिव
प्राणेशमालोकते॥५७॥

(जिस समय) मनुष्य अनेक प्रकारके मंगलकारक शब्द उच्चारण कर रहे है उस (प्रियतम के विदेश) गमन करने की वेला, केलिमंदिरके झुरोखेमें कमलरूपी मुखको स्थापन करनेवाली, गिरते हुए अश्रुवोंसे भीगे हुए कुचौंवाली, चंचलनयनी बाला श्वासोच्छ्रास से ओठौंको कंपित करती हुई शिव, शिव, प्राणपतिको अवलोकन करती है! (यह 'प्रवस्यत्पतिका' नायिका है)

यदवधि दयितो विलोचनाभ्यां सहचरि दैवव-
शेन दूरतोऽभूत्। तदवधि शिथिलीकृतो मदी-
यैरथ करणैः प्रणयो निजक्रियासु[१]॥५८॥


  1. 'पुष्पिताग्रा' छंद है।