हे सखी! ज्योंहि प्रियतम दैवयोगात् नयनों से दूर हुआ त्योंहीं प्रेमवशात् मेरी इन्द्रियां अपनी अपनी क्रिया में शिथिल अर्थात् जड़ हुई। नयनों ने देखना, श्रवणों ने सुनना, हाथों ने स्पर्श करना त्यागा यह भाव। ('प्रवस्यत्पतिका' नायिका है)
निखिलां रजनीं प्रियेण दूरादुपयातेन विवोधिता
कथाभिः। अधिकं न हि पारयामि वक्तुं सखि
मा जल्प तवायसी रसज्ञा[१]॥५९॥
दूर देश से आएहुए प्रियतम के सारी रात्रि वार्तालाप करने से मुझ जगीहुई को अब अधिक भाषण करने की शक्ति नहीं; इससे, हे सखि! तू (वृथा) मत जल्पना करै, तेरी रसना [जिव्हा] तो लोहकी है ('आगतपतिका' नायिका है)
निपतद्वाष्पसंरोधमुक्तचांचल्यतारकम्। कदा
नयननीलाब्जमालोकेय मृगीदृशः॥६०॥
गिरतेहुए अश्रुओंके रोध से चंचलताहीन तारौंवाले मृगनयनी के नयनरूपी नीलकमल मैं[२] कब अवलोकन करूंगा
यदि लक्ष्मण सा मृगेक्षणा न मदीक्षासरणिं स-
मेष्यति। अमुना जड़जीवितेन मे जगता वा
विफलेन किं फलम्[३]॥६१॥