पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/११४

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(७४)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

वियोगसे विकलहृदयवाली, 'हे प्रिय', 'हे प्रिय', इस प्रकार विलापकरनेवाली, बाला स्वसंनिकटभागमें भी आए हुए नायकको अपरिचित [अजान] की भांति देखती है (अधिक विरहव्यथाके कारण मोह उत्पन्न होनेसे स्मरण शक्ति जाती रही, इस हेतु यद्यपि वह प्रियतम के नामसे वारंवार विलाप करती थी तद्यपि पास आने से भी वह उसे पहिचाननेको समर्थ नहीं हुई)

दारिद्र्यं भजते कलानिधिरयं राकाऽधुना म्ला-
यति स्वैरं कैरवकाननेषु परितो मालिन्यमुन्मी-
लति। द्योतंते हरिदंतराणि सुहृदां वृंदं समानं-
दति त्वं चेदंचसि कांचनाङ्गि वदनांभोजे वि-
कासश्रियम्॥७२॥

हे सुवर्णवर्णे! यदि तू अपने वदनकमल में विकास की शोभा को धारण करैगी (अर्थात् मुख को विकसित सहास्य करेगी) तो इस समय में यह चंद्रमा तुच्छ हो जावेगा; पौर्णिमा की रात्रि म्लानत्व को धारण करैगी, कुमुदवन में सर्व ओर यथेष्ट संकोच उत्पन्न होगा, दिगंत प्रकाशित होंगे (और) हितूजन आनंद पावैंगे ('मानिनी' नायिका प्रति सखी की उक्ति है। मान त्याग करने से इतनी श्रेयस्कर बातें होंगी यह सूचित करती है। मुखरूपी कमल के विकसने से सूर्योदय हुआ यह जान उपरोक्त पदार्थों के यथायोग्य व्यापार होने लगैंगे यह भाव)