राम्। अपि नीलोत्पलमालां बाला व्यालावलिं किलामनुत॥६९॥
वह (विरहव्याकुला) बाला, कालागर चंदन के रसको निपट हलाहल [विष] जान, नीलकमल की माला को भी ठीक ठीक व्याल [सर्प] पंक्ति समुझती है। (कालागरू का पंक और विष, तथा नीलोत्पलमाला और व्याल एकही रंग के होते हैं इससे सहजही चमोत्पादक है, फिर वियोगजनित दुःख से संतप्तजनों को विपरीत क्यों न दिखाई देंगे? उनको तो इन शांतिकारक पदार्थों से अधिकाधिक कष्ट होता है)
विधिवंचितया मयान यातं सखि संकेतनिकेतनं
प्रियस्य। अधुना बत किं विधातुकामो मयि
कामो नृपतिःपुनर्न जाने[१]॥७०॥
हे सखि! मैं हतभागिनी प्रियतमके संकेतस्थानको न गई; हाय (इस कारण) मदन महीप न जा मुझे क्या करैगा? (मनोजराजके आज्ञानुसार मैं प्रियकी सहेटको न गई अतएव वचन उलंघन करनेके अपराध में मुझको महान दंड मिलेगा यह भाव)
विरहेण विकलहृदया विलपंती दयित दयि-
तेति। आगतमपि तं सविधे परिचयहीनेव
वीक्षते बाला॥७॥
- ↑ 'माल्यभारा' छंदहै।