पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/११६

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।


रहैगा? इस प्रकार के तर्क वितर्क जबतक कमलनयनी करती है तब तक मैनमहीप के छत्र की शोभा (को धारण करने) वाले चन्द्रमा का बिंब उदित हुआ (नायिका सशक होही रही थी कि रात्रि में कामातुर होकर रोष त्यागि मुझे नायक के निकट जानाहोगा कि चंद्र बिंब ने दर्शन दे मान छुडाने में सहायता दी। इस में 'समाधि' अलंकार है। 'समाधि' अलंकार उसे कहते हैं जहां किसी कारण से कार्य सुगम होजाता है)

प्रभातसमयप्रभां प्रणयिनिन्हुवानां रसादमुष्य
निजपाणिना दृशममीलयं लीलया। अयं तु
खलु पद्मिनीपरिमलालिपाटच्चरै रवेरुदयमध्य-
गादधिकचारु तैर्मारुतैः[१]॥७५॥

प्रातःकालको शोभा (अर्थात् अरुणोदय) को प्रियमतसे छिपाने के लिए अनुरागवश मैंने कुतूहल से उसके नयनोंको अपने हाथों से आच्छादित किया, परंतु कमलिनीके सौरभसमूहको हरण करनेवाले परमोत्कृष्ट पवन ने सूर्योदय का बोध कराया (रविके निकल आने से नायक ने सेज त्यागी और नायिका का इच्छित कार्य जिसके अर्थ वह दिनकी रात्रि करनेको प्रयत्न करती थी न हुआ। विपरीत फलप्राप्ति से इसमें 'विषम' अलंकार जानना)


  1. 'पृथ्वी' छंद है।