पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/११७

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विलासः२]
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भाषाटीकासहितः।

विद्रादाश्चर्यस्तिमितमथ किंचित् परिचया-
दुदंचच्चांचल्यं तदनुपरितः स्फारितरुचि। गु-
रूणां संघाते सपदि मयि याते समजनि त्रपाघूर्ण-
त्तारं नयनमिह सारंगजदृशः॥७६॥

इस स्थलके मध्य गुरुजनौंके बीच में अकस्मात् मेरे जाने से मृगशावकनयनीके नयन (मुझे) दूर से देख स्तब्ध, (निकट आने से) इसे कुछ कुछ पहिचानते हैं यह समुझ चंचल तदनंतर (अधिक समीप भाग में प्राप्त होने से) परम दीप्तिमान, (और अत्यंत पार्श्ववर्ती होने से) लज्जाके कारण संभ्रमित तारौंवाले[१] हुए (जिस स्थान में देवपूजनार्थ अथवा अपर किसी कारणसे नायिका गई वहीं उसका चिरकाल भोषित पति भी मिला-उसे देख नायिकाके नयनों की जो दशा हुई उसका वर्णन नायिक अपने मित्र से करता है)

कपोलावुन्मीलन्नवपुलकपाली मयि मनाङ्मृ-
शत्यंतःस्मेरस्तबकितमुखांभोरुहरुचः। कथं
कारं शक्याः परिगदितुमिंदीवरदृशो दलद्दाक्षा-
निर्यद्रसभरसपक्षा भणितयः॥७७॥

उत्पन्न हुई है नूतन पुलक जिनमें ऐसे (नायिका के) कपोल मुझ से किंचितमात्र छुए जानेपर मनहीं मन की मुसकानि से पुष्पगुच्छ के समान होनेवाले मुखरूपी कमल की कांतिवाली सरोजनयनी के, दलित होनेवाले द्राक्षसे निकले


  1. आंख की पुतली।