हुए रससमूह के तुल्य (मीठे) वचन वरणन किये जाने को किस प्रकार समर्थ हैं?
राजानं जनयांबभूव सहसा जैवातृक त्वां तु यः
सोऽयं कुंठितसर्वशक्तिनिकरो जातो जरार्त्तो
विधिः। संप्रत्युन्मदखंजरीटनयनावक्राय नित्य
श्रिये दाता राज्यमखंडमस्य जगतो धाता
नवो मन्मथः॥७८॥
हे चंद्र! जिस ब्रह्माने विना विचारे तुझे राजकीय पदवी को पहुंचाया अब वृद्धता के कारण उसकी सर्वशक्ति जाती रही; इस समय में तो मन्मथरूपी नूतन ब्रह्मा ने उन्मत्त खंजन के समान नयनौंवाली (नायिका) के नित्यशोभायमान मुख को इस जगतका अखंड राज्य प्रदान किया है (चंद्रमासे कोई कहता है कि तुझ से कामिनी का मुख अधिक शोभायमान है। अत्यंत सौंदर्यताके कारण यह संसारको जीतेगा यह भाव)
आविर्भूता यदवधि मधुस्यंदिनी नंदसूनोः कां-
तिः काचिन्निखिलनयनाकर्षणे कार्मराज्ञा। श्वा
सो दीर्घस्तवधि मुखे पांडिमा गंडमूले शून्या
वृत्तिः कुलमृगशां चेतसि प्रादुरासीत्॥७९॥
समस्त नयनौं को (अपनी और) आकर्षण करनेवाली मधुरता को टपकानेवाली, परम कुशला ऐसी लंदनंदनकी अवर्णनीय कांति ज्योंहीं प्रकटी त्योंहीं कुलकानि को पालन