- यवनी नवनीतकोमलांगी शयनीये यदि लभ्यते कदाचित् । अवनीतलमेव साधु मन्ये न वनी माघवनी विलासहेतुः ॥* अद्भुत याचनाको सुनकर वादशाह चकित हुए, परंतु वच- नत देही चुके थे; लवंगी पंडितराजको समर्पणकी । वाचक हास्य 'करंगे कि लवंगीका कलश लेकर जगन्नाथरायके सन्मुख प्रवेश कारना नितांत असंभव है क्योंकि मुसल्मानोंमें परदा विषयक नि- म सहज उल्लंघन नहीं हो सकते । न हो सकते होंगे; मेरा अभि- य इस आख्यायिकाकी सत्यताके निर्णय करनेका नहीं, किंत तो वातै बहुधा विद्वानोंके मुखसे सुननेमें आती हैं उनके लिखनेका है। फिर इस आख्यायिकामें कुछ अर्थ नहीं ऐसाभी नहीं। विना किसी पदार्थकी अल्पाधिक स्थितिके तद्विषयक वार्ता नहीं प्रचलित होती । अस्तु । लवंगीकी प्राप्ति और तज्जनित पंडितराजका स्वधर्मसे हस्त प्रक्षालन काशीस्थ पंडितोंको सहन नहीं हुआ, अतएव जगन्नाथ- रायको उन्होंने ब्राह्मण पंक्तिसे बहिष्कृत किया । नैरास्यने पंडिते- .. न्द्रको तब तो महान् उदासीनताको पहुँचाया और जैसा सुनते हैं गंगास्तवन द्वारा उनके पातकोंका निराकरण कराया। एतत् सम्ब- न्धीय आख्यायिका, मैंने गंगालहरीके स्वकृत भाषानुवादमें संक्षेप रीतिसे लिखी है इस कारण अब यहां पुनरुक्ति नहीं करता। .. जगन्नाथराय के कालनिर्णयमें मतांतर है; कोई कहते हैं कि वह अकबर के समय में और कोई यह कहते हैं कि शाहजहां के समय में हुआ। महाराष्ट्र भाषाकी 'काव्येतिहाससंग्रह ' नामक मासिक पुस्तक में रामदास, वामन, इत्यादि कवियों का काल ज्य * नवनीतके समान कोमलांगी यवनी यदि शय्यामें प्राप्त होवै तो इस भूतलको मैं परम सुखकर मानूंगा, इन्द्रके नन्दनवनमें विलास करनेका सुख उसके सन्मुखं तुच्छ है ?
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