याभिधानी+[१] जल प्राशनेच्छुक हुए। अवसर पाय लवंगी एक म
हर लघुकलश को जल प्रपूरित करके जहां खेल हो रहा था प्रा
हुई । वादशाहके मानसको वारुणी ने अपनाया था इससे ज
समय एक विचित्र रंगके तरंग उसके हृदयांतर्गत उल्लासित हुए
लवंगी की ओर पंडितराज को भी अनिमेषभाव से अवलोक
करते हुए वादशाह ने देखा । इन कारणों से देहलीनरेश ने पंडि
न्द्र को, उसी वेष में लवंगी के वर्णन करने की, आज्ञा दी। त
कवि ने कहा-
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुंभा
कुसुंभारुणं चारु चैलं वसाना।
समस्तस्य लोकस्य चेतःप्रवृत्ति -
गृहीत्वा घटे न्यस्य यातीव भाति ।
इस अत्युत्कृष्ट वर्णनको श्रवण करके बादशाहने परम प्रसन्नता
प्रकटकी और जगन्नाथरायसे इच्छानुकूल याचना करनेको कहा।
तदनुसार पंडित फिर वोले-
न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं -
न वित्तेपु चित्तं मदीयं कदाचित् ।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुंभा
लवंगी कुरंगी दृगंगीकरोतु ॥
१ अर्थात् बादशाह-यह शब्द आंग्लभाषाके लटर शब्दका स्थानापन्नहै, २ मस्तक पं कुंभको स्थापन करनेवाली और कुसुंभ रंगके मनोहर दुकृलसे आभषित यह सुंदरस्तनी मानौं सर्व संसारके चित्तको हरण/ करके अपने कलशमें ले जाती हुई शोभायमान है। इन में गजयजयूथ मांगताहूं. न अश्वराजिकी इच्छा रखताहूं, संप- त्ति मेग तनिकभी मन नहीं; मस्तक पे घटस्थापन करनेवाली आर. मनोहर स्तनोंवाली, यह कुरंगनयनी लवंगी मुझे अंगीकार करे। पाहिए।
- ↑ + क्या सच्चे रसिकको अपने पुस्तकालयमें एकाग्र चित्त होकर ग्रंथवाचनका सुख राज्यवैभवके कृत्रिमसुखसे विशेष श्रेयस्कर नहीं है! अतः आधिगतपरमार्थपंडितको राजासे न्यून न समझना चाहिए।