पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१२

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(८)
भूमिका।


याभिधानी+[१] जल प्राशनेच्छुक हुए। अवसर पाय लवंगी एक म हर लघुकलश को जल प्रपूरित करके जहां खेल हो रहा था प्रा हुई । वादशाहके मानसको वारुणी ने अपनाया था इससे ज समय एक विचित्र रंगके तरंग उसके हृदयांतर्गत उल्लासित हुए लवंगी की ओर पंडितराज को भी अनिमेषभाव से अवलोक करते हुए वादशाह ने देखा । इन कारणों से देहलीनरेश ने पंडि न्द्र को, उसी वेष में लवंगी के वर्णन करने की, आज्ञा दी। त कवि ने कहा- इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुंभा कुसुंभारुणं चारु चैलं वसाना। समस्तस्य लोकस्य चेतःप्रवृत्ति - गृहीत्वा घटे न्यस्य यातीव भाति । इस अत्युत्कृष्ट वर्णनको श्रवण करके बादशाहने परम प्रसन्नता प्रकटकी और जगन्नाथरायसे इच्छानुकूल याचना करनेको कहा। तदनुसार पंडित फिर वोले- न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं - न वित्तेपु चित्तं मदीयं कदाचित् । इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुंभा लवंगी कुरंगी दृगंगीकरोतु ॥

१ अर्थात् बादशाह-यह शब्द आंग्लभाषाके लटर शब्दका स्थानापन्नहै, २ मस्तक पं कुंभको स्थापन करनेवाली और कुसुंभ रंगके मनोहर दुकृलसे आभषित यह सुंदरस्तनी मानौं सर्व संसारके चित्तको हरण/ करके अपने कलशमें ले जाती हुई शोभायमान है। इन में गजयजयूथ मांगताहूं. न अश्वराजिकी इच्छा रखताहूं, संप- त्ति मेग तनिकभी मन नहीं; मस्तक पे घटस्थापन करनेवाली आर. मनोहर स्तनोंवाली, यह कुरंगनयनी लवंगी मुझे अंगीकार करे। पाहिए।

  1. + क्या सच्चे रसिकको अपने पुस्तकालयमें एकाग्र चित्त होकर ग्रंथवाचनका सुख राज्यवैभवके कृत्रिमसुखसे विशेष श्रेयस्कर नहीं है! अतः आधिगतपरमार्थपंडितको राजासे न्यून न समझना चाहिए।