पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१४४

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।

किमिति कृशासि कृशोदरि किं तव परकीयवृत्तान्तैः।
कथय तथापि मुदे मम कथयिष्यति पांथ तव जाया॥१४६॥

(कोई पथिक किसी नायिकासे प्रश्न करता है कि) हे कृशोदरि! तू इतनी कृश क्यों है? (यह सुन नायिका उत्तर देती है) दूसरेके वृत्तांतसे तुझे क्या? (पथिक फिर पूछता है) तथापि मेरे विनोदार्थ कह? (उसका उत्तर वह देती है) हे पांथ! (तेरे प्रश्नका उत्तर) तेरी स्त्री देगी (पथिकके प्रश्नका यह अभिप्राय है कि यदि तू कृश होनेका कारण कहे तो मैं तेरे दुःख निवारणार्थ प्रयत्न करूं, पथिकने यह जाना कि वह विरहसे कृशाङ्गी है, परंतु सती स्त्री दूसरे पुरुष से अपना वृत्त नहीं कहतीं इससे नायिकाने उत्तर देना अनुचित समुझा, जब पांथने अधिक अनुरोध किया तब नायिकाने अपने उत्तरसे यह सूचना की कि मेरी कृशताका कारण तेरी स्त्री कहेगी अर्थात् जिस प्रकार मेरा पति विदेशी होने से कामव्यथाने मुझे कृश किया है उसी प्रकार तेरे पथिक होनेसे तेरी स्त्रीको भी किया होगा। इसमें यह ध्वनि निकली है कि निज स्त्रीके कृशताकी औषाधि न कर मुझ से कारण पूंछता है इससे तू महामूर्ख है)

तुलामनालोक्य निजामखर्वं गौरांगि गर्व न कदापि कुर्याः।
लसंति नानाफलभारवत्यो लताः कियत्यो गहनांतरेषु॥१४७॥