पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१४६

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।

अयि मंदस्मितमधुरं वदनं तन्वंगि यदि मनाक् कुरुषे॥
अधुनैव कलय शमितं राकारमणस्य हंत साम्राज्यम्॥१५०॥

हे कृशांगि! यदि (तू) किंचित (अपने) मुखको मंद मुसुकानि से मधुर करै (तो) चंद्रमाकी शोभा इसी समय शांत हुई जान पडै (तेरा मुख चंद्रकी शोभाको जीत सकता है यह भाव)

मधुरतरं स्मयमानः स्वस्मिन्नेवालपञ्छनैः किमपि।
कोकनदयंस्त्रिलोकीमालंबनशून्य मीक्षते क्षीबः॥१५१॥

मंद मुसुकानेवाला उन्मत्त पुरुष अपनेही मन में धीरे धीरे कुछ कहता है (और) रक्तकमल के समान त्रिलोकी को आलंबनहीन देखता है (मत्तमनुष्य का वर्णन है यह आर्या 'शृंगारविलास' के योग्य तो नहीं जान पड़ती)

मधुरसान्मधुरं हि तवाधरं तरुणि मद्वदने विनिवेशय।
मम गृहाण करेण करांबुजं प प पतामि ह हा भ भ भूतले॥१५२॥

हे तरुणि! मधु से अधिक मधुर अपने अधर को मेरे वदन पै स्थापनकर अर्थात् मुझे चुंबन दे और हाथ से मेरे हस्त कमल को पकड (देख) म म मैं भ भ भूमि पैग ग ग गिरता हूं (मद्यपान से मत्त हुए पुरुप की उक्ति है, अपनेहीं