पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१३४)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।


मित्र उसकी इस कथाको रहने दो, और दूसरी वार्ता करो (ठीकहै "एक तो प्राण देत इक उपर एकन जानत पीरा")

पाणौ कृतः पाणिरिलासुतायाः सस्वेदकंपो रघुनंदनेन।
हिमाम्बुसंगानिलविह्वलस्य प्रभातपद्मस्य बभार शोभाम्॥१६९॥

रामचंद्रजी के द्वारा ग्रहण किये जाने से जानकी जी का स्वेद युक्त कंपित हस्त, तुषारकण से मिश्रित पवनसे विह्वल किये गए प्रातःकाल के कमलकी शोनाको प्राप्त हुआ (हिमर्तु में वायु संचार से प्रभात समय कमल की जैसी विह्वल दशा होजाती है वैसीही सीताजी के हस्त की हुई यह भाव)

अरुणमपि विद्रुमलै मृदुलतरं चापि किसलयं वाले॥
अधरीकरोति नितरां तवाधरो मधुरिमातिशयात्॥१७०॥

हे बाले! माधुर्यताधिक्य से तेरा अधर अरुण रंगके विद्रुमद्रुम और मृदुलतर नूतन पत्रकोशी अत्यन्त नीच दशाको प्राप्त करताहै (विद्रुममें अरुणता है परंतु माधुर्य्यता और कोमलता दोनों नहीं; और किसलयमें अरुणता और मृदुलता है परंतु मधुरता नहीं इस लिए कामिनीका ओष्ठ अरुणता, कोमलता और माधुर्य्यता इन तीनो गुणोंसे पूर्ण होनेके कारण श्रेष्ठ हुआ)