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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१५३

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विलासः२]
(१३३)
भाषाटीकासहितः।

मांथर्यमाप गमनं सह शैशवेन रक्तं सहैव मनसा
ऽधरसीबिंबमासित्। किंचाभवन्मृगकिशोरदृ-
शो नितंबः सर्वाधिको गुरुरयं सह मन्मथेन॥१६७॥

बाल्यावस्थाके साथ मृगशावकलोचनी की गमनगति मंद हुई अर्थात् जैसे जैसे शिशुताका धर्म मंद होता गया वैसे वैसे नायिका भी मंदगामिनी होती गई; मन के साथ ही बिंबाधर अरुणवर्ण हुए; (रक्तका अर्थ अनुराग और रक्तरंग दोनों होते हैं इससे यह कहा कि ज्यों ज्यों मन अनुरागी होता गया त्यों त्यों ओष्ठ भी रागी [अरुण] हुए) और मन्मथ [कामदेव] के साथ नितंब सबसे अधिक गरुये हुए अर्थात् जैसे काम बढ़ता गया तैसे नितंब भी पुष्ट होते गए।

श्वासोऽनुमानवेद्यः शीतान्यंगानि निश्चला दृष्टिः।
नस्यातः सुभग कथेयं तिष्ठतु तावत्कथांतरं कथय॥१६८॥

(स्वयं महान प्रीति रखनेवाली परंतु नायिककी अनिच्छित नायिका के विरहजनित दुःखावस्थांका वर्णन कोई उसके प्रीतिपात्र से करता है और कहता है कि वह इतनी कृश हो गई है कि) श्वास चलता है कि नहीं इसका ज्ञान अनुमान से होता है, अंग सब शीतल हो गए हैं, दृष्टि निश्चल है (इस प्रकारका वर्णन सुनकर नायकका हृदय द्रवीभूत तो न हुआ किंतु उलटा उसने यह उत्तर दिया कि) हे

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