पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१३८)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

परिष्वजन् रोषवशात् तिरस्कृतः प्रियो मृगाक्ष्या शयितः पराङ्मुखः।
किं दुःखितोऽसाविति कांदिशीकया कदाचिदाचुंब्य चिराय सस्वजे १७८

आलिंगन करने में, रोष से तिरस्कार कियागया (और इसी कारण) पराङ्मुख [पीठ देकर] सोया हुआ प्रियतम क्या दुःखित है? इस प्रकार मन में अनुमान कर भयभीत हुई मृगनयनी (नायिका) ने अनायास (नायकको) चुंबन करके चिरकाल पर्यंत हृदय से लगाया। (बिना प्रयत्न आलिंगन का इच्छित लाभ होने से 'प्रहर्षण' अलंकार हुआ)

चेलांचलेनाननशीतरश्मिं संवृण्वतीनां हरिदृश्वरीणाम्।
व्रजांगनानां स्मरजातकंपादकाण्डसंपातमियाय नीवी॥१७९॥

वस्त्रांचलसे मुखचंद्रको छिपानेवाली (और) श्रीकृष्णकी ओर अवलोकन करनेवाली ब्रजनारियोंकी नीवी [कटिपट बंधन,] कामाधिक्यसे उत्पन्न हुई कंपके कारण, अकस्मात् खुल गई (लज्जासे इधर मुखाच्छादन करना चाहा उधर नीवी खुलगईं अर्थात् इच्छाके प्रतिकूल कार्य हुआ इस हेतु इस श्लोकमें 'विषाद' अलंकार जानना)

अधरेण समागमाद्रदानामरुणिम्ना पिहितोऽपि शुक्लभावः।
हसितेन सितेन पक्ष्मलाक्ष्याः पुनरुल्लासमवाप जातपक्षः॥१८०॥