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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१५७

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विलासः२]
(१३७)
भाषाटीकासहितः।


किएगए पौर्णिमा संबंधीय चंद्रमंडलके समान शोभायमानहै।

निभाल्य भूयो निजगौरिमाणं मा नाम मानं सहसैव यासीः।
गृहे गृहे पश्य तवांगवर्णा मुग्धे सुवर्णा वलयो लुठंति[]॥१७६॥

हे मुग्धे! अपनी गौरिमा [गौरवर्ण] को देख सहसा गर्व न कर; देख तेरे अंगके वर्ण समान सुवर्णके आभरण घर घरमें लोटते हैं (अंगवर्ण उपमेयको सुवर्ण उपमानसे आदर न होनेसे प्रतीप, अलंकार हुआ)

करिकुंभतुलामुरोजयोः क्रियमाणां कविभिर्विशृंखलैः।
कथमालि शृणोषि सादरं विपरीतार्थविदो हि योषितः॥१७७॥

निरंकुश कवियोंके द्वारा कहीगई गजगंडस्थलसे कुचद्वयोंके तुलनाकी कथा, हे आलि! तू सादर सुनती है। ठीक है, स्त्रियां विपरीत अर्थ जाननेवाली होती है (गजगंडस्थल अत्यंत उत्तुंग होनेके कारण यदि उनसे कुचौंको उपमा दी गई तो यह सूचित हुआ कि नायिका प्रगल्भादशाको प्राप्त होगई अर्थात् यौवन कालका अपगम समय निकट आया इस श्लोकमें नायिका से सखी यह कहती है कि तू अभी उस अवस्थाको नहीं पहुँची अर्थात् अभी मुग्धाही है तस्मात् 'करिकुंभ' की उपमा तेरे विषयमें अयोग्य है इसमें 'अर्थांतरन्यास' और 'प्रतीप' अलंकारका संकर है)


  1. 'उपजाति' छंद।