पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१६५

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विलासः३]
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भाषाटीकासहितः।


(पतिव्रता स्त्री पति के घर के बाहर पद भी नहीं धरती फिर तू दूरस्थ मुक्तिपदस्थल को कैसे गई यह भाव)

काव्यात्मना मनसि पर्यणमन् पुरा मे पीयूषसारसरसास्तव ये विलासाः।
तानंतरेण रमणी रमणीयशीले चेतोहरा सुकविता भविता कथं नः॥१०॥

हे सुशीले! अमृतरस से भी सरस जो मेरे विलास प्रथम काव्यरूप होकर मेरे मनमें प्रवेश करते थे उनके बिना (अब) मेरी कविता, मनोहारिणी (और) रमणीय कैसे होवैगी? (तेरे हाव, भाव, चेष्टाओंको देखमैं काव्य में उनका वर्णन करताथा जिस से श्लोक सरस और प्रशंसनीय होतेथे परंतु अब तेरे न रहने से मेरी कविता में उन गुणोंका होना संभव नहीं यह भाव)

या तावकीनमधुरस्मितकांतिकांते भूमंडले विफलतां कविषु व्यतानीत्।
सा कातराक्षि विलयं स्वयि यातवत्यां राकाऽधुना वहति वैभवमिदिरायाः॥११॥

हे चपलनयने! तेरी मधुर मुसुकानिकी कांतिसे शोभायमान भूमंडलमें जो पौर्णिमा कवियोंके विषयमें निष्फलताको प्राप्त होती भई, वह मेरे स्वर्गवासिनी होने से अब लक्ष्मीके वैभवको धारण करती है, (पौर्णिमाका शुभ्रत्व प्रशंसनीय है

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