कर्पूर की वर्तिका [बत्ती] के समान नेत्रोंके ताप को हरण करनेवाली, प्रफुल्लित कमलमाल तुल्य कंठ को सुख देनेवाली चित्त में चमत्कार उत्पन्न करनेवाली कविता के सदृश रमणीय, वह नतगात्री (नायिका) स्त्रियों मे देवांगना के समान शोभायमान थी।
स्वप्नांतरेऽपि खलु भामिनि पत्युरन्यं या दृष्टवत्यसि न कंचन साभिलाषम्।
सा संप्रति प्रचलिताऽसि गुणैर्विहीनं प्राप्तुं कथं कथय हंत परं पुमांसम्॥१७॥
हे भामिनी। जिस (तू) ने, स्वम में भी किसी अन्यपति को अभिलाष सहित न अवलोकन किया, सो (वहीं) अब गुणहीन पर पूरुष को प्राप्त होने के लिए कैसे गई! (यह तूही) कह. ("गुणैर्विहीनं" और "परं पुमांसम्" में श्लेष है, गुणविहीन पर पूरुष और निर्गुण परब्रह्म दोनों अर्थ व्यंजक हैं)
दयितस्य गुणाननुस्मरंती शयने संप्रति या विलोकिताऽऽसीत्।
अधुना किल हंत सा कृशांगी गिरमंगीकुरुते न भाषिताऽपि[१]॥१८॥
प्राणत्याग समय सेज पर जो प्रियतमके गुणौंका स्मरण करती हुई देखीगई हाय अब वही कृशाङ्गी भाषण करनेसे भी नहीं बोलती!
- ↑ 'माल्यभारा' छंद है।