पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१७८

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[शांत-
भामिनीविलासः।

जिसकी जगद्व्यापिनी भासासे अखिललोक भासमान हैं और सर्व पदार्थों में 'मैं' इस प्रकार के अहंकारिक शब्द की जाननेवालों का जो गूढाश्रय है, ऐसे उस विष्णु भगवान को, अपने हृदय का भेद न जाननेवाले मनुष्य, दूसरों से पूछते हैं, शिव! शिव! प्राणियों का यह अन्याय कौन वर्णन कर सकता है? (भगवान अपने हृदय में वर्तमान होकर तत्संबंधी प्रश्न दूसरे से करता आश्चर्यजनक है यह भाव। इस श्लोक में विपरीत फल की इच्छा का वरणन किया इससे 'विचित्र' अलंकार हुआ।

सेवायां यदि सामिलापमसि रे लक्ष्मीपतिः से-
व्यतां चिंतायामसि सस्पृहं यदि तदा चक्रा-
युधश्चित्यताम्। आलापं यदि कांक्षसि स्मर-
रिपोर्णाथा तदालप्यतां स्थापं वाञ्छसि चेन्निर-
गलसुखे चेतः सखे सुप्यताम्॥२०॥

हे मन! हे मित्र! यदि सेवा करने की अभिलाषा होवै तो लक्ष्मीपति [विष्णु, भगवान] की सेवाकर; यदि चिंतन करने की स्पृहा हो तो चक्रायुध. [नारायण] का चिंतन कर; यदि कथन करने की इच्छा होवै तो शंकर की कथा कथन कर; यदि शयन करने की आकांक्षा होवै तो ब्रह्मानंद में शयन कर।

भवग्रीष्मप्रौढातपनिवहसंतप्तवपुपो बलादुन्मू-