ल्यं दानिगडमविवेकव्यतिकरम्। विशुद्धेऽ-
स्मिन्नात्मामृतसरसि नैराश्यशिशिरे विगाहते
दूरीकृतकलुषजालाः सुकृतिनः॥२१॥
संसाररूपी ग्रीष्मर्तुके प्रचंड आतपसमूह से संतप्त हुए प्रवर्द्धनीय अविवेक रूपी बंधनको बलसे शीघही तोड़, पातकजालोंको दूरकर, निराशतासे शीतल किएगए इस विशुद्धात्मामृत तडागमें, पुण्यवान जन स्नान करते हैं।
बंधोन्मुत्यै खलु मखमुखान् कुर्वते कर्मपाशा
अंतःशांत्यै सुनिशतमतानल्पचिंतां भजति।
तीर्थे मज्जंत्यशुमजलधेः पारमारोटुकामाः सर्व
प्रामादिकमिह भवभ्रांतिभाजां नराणाम् ॥२२॥
बंधन मुक्त होनेके हेतु कर्मरूपी पाशवाली यज्ञादि क्रियाओं में प्रवृत्ति, अंतःकर्ण की शांतिके निमित्त अनेक मुनियोंके (कहे गए) अनल्प चिंतनका भजन, (संसाररूपी) अशुभ समुद्रके पार जानेके अर्थ तीर्थोंमें मज्जन, इन सब (साधनों का करना,) इस लोकमें जगनांति नमित मनुष्योंकी भूल है (इष्ट पदार्थके प्राप्त्यर्थ अनिष्ट कार्य करना वर्णन किया इससे 'विचित्र' अलंकार हुआ)
प्रथमं चुंबितचरणा जंघानानूरुनाभिहृदयानि।
आश्लिष्य भावना मे खेलतु विष्णोर्मुखाजशोभायाम् ॥२३॥