पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१८

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भूमिका। में हम अपनी योजना करते हैं तो समाधानके हेतु इस श्लोव उर स्मरण वारंवार हो आता है।- कनकभूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिवपुणि प्रणिधीयते। न स विरौति न चापि हि शोभते भवति योजयितुर्वचनीयता* ॥ ग्रंथ लिखना, भाषांतर करना, फिर उनके प्रकाश करनेके । यत्नमें लगना बहुतेरोंका स्वाभाविक व्यापार होता है; चाहै हा हो चाहे लाभ | कभी कभी समाचारपत्रक भी पुस्तकोंका योग्या योग्य विचार न करके मनमानी समालोचना झोंक देते हैं जिसर ग्रंयकर्चाका अंतःकरण कलुपित हो जाता है और ग्रंथके प्रचारमें में वाधा आती है। १३ भामिनीविलासका पद्यात्मक भाषांतर करके प्रतिश्लोकक भावार्थ पद्यमें लिखनेका मेरा विचार था, परंतु जैसी स्वास्थर चाहिए घसी न होनेसे केवल गद्यमें करना पड़ा । श्लोकोंकी योजन कई हस्तलिखित तथा मुद्रित पुस्तकोंको एकत्र करके ठीच की गई है । भाषांतरमें अर्थ व्यंजकताके निमित्त ऊपरसे लायेगरे शब्द () इस चिह्नके वीचमें रक्खे गये हैं। ऐसा करनेकी कुछ पड़ी आवश्यकता नथी क्योंकि श्लोकका भाव भाषामें दरशा देन ही घस है परंतु कोई कोई यह आक्षेप करने लगते हैं कि मूलक अर्य न करके मनमाना भाव लिखदिया है इस कारण, मैंने मूल को न छोड भली भांति अर्थ स्पष्ट करनेके हेतु उपरोक्त चिह्न आवश्यकशब्द लिख दिये हैं । जो शब्द अथवा वाक्य किसीव

  • कांचनके आभूषणमें संग्रहण करनेके योग्य रत्नको यदि कांच

स्थान दिया, सो यह ग्ल रुदन करताह ऐसा नहीं, और वहां शोभा पाता ऐसाभी नहीं,किंतु वसी योजना करनेवालेके चातुर्यकी मात्र चर्चा होताह