देखकर भी, हाय! विषयवासनाओं से चित्त अद्यापि नहीं विलग होता; यह क्या?
सपदि विलयमेतु राज्यलक्ष्मीरुपरि पतंत्वथवा कृपाणधाराः।
अपहरतुतरां शिरः कृतांतो मम तु मतिने मनागपैतु धर्मात्[१] ॥२७॥
(चाहै) राज्यलक्ष्मी सत्वर नष्ट हो जावै, चाहै कृपाणधारैं ऊपर से गिरे, (चाहै) कृतांत शिरश्छेदन करै, परंतु मेरा मन किंचित भी धर्म से न चले।
अपि बहलदहनजालं मूर्द्धि रिपुर्मे निरंतरं धमतु।
पातयतु वासिधारामहमणुमात्रं न किंचिदपभाषे ॥२८॥
शत्रु मेरे मस्तक पै (चाहै) प्रचंड अग्निसमूहको भी निरंतर जलावै अथवा खड्गधार प्रहार करै (परंतु) मैं किंचिमात्रभी अपभाषण न करूं (महान कष्ट होने पै भी अपशब्द मुखसे न निकलना चाहिए यह भाव)
तरणोपायमपश्यन्नपि मामक जीव ताम्यसि कुतस्त्वम्।
चेतःसरणावस्यां किं नागंता कदापि नंदसुतः॥२९॥
हे मम जीव! (भवसागर) से पार होनेका उपाय न करके भी (वृथा) तू क्यों संतप्त होता है? क्या इस मनरूपी
- ↑ 'पुष्पिताग्रा' छंद।