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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१८०

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(१६०)
[शांत-
भामिनीविलासः।

प्रथम चरणों को चुंबन कर (पश्चात्) जंघा, जानु, उरु, नाभि (और) हृदय को आलिंग्य, विष्णु भगवान के मुखकमल की शोभा में मेरा ध्यान लगै (चरणों के चुंबन और जंघा, जानु, इत्यादिक के आलिंगन का तात्पर्य उन उन अंगों का मन में चिंतन करना है)

मलयानिलकालकूटयो रमणीकुंतलभोगिभो गयोः॥
श्वपचात्मभुवोनिरंतरा मम भूयात्परमात्मनि स्थितिः[]॥२४॥

मलयाचल पवन और विष में, स्त्रीकेशपाश और सर्पशरीर में, श्वपच और ब्राह्मण में मेरी निरंतर समान बुद्धि होवै।

निखिलं जगदेव नश्वरं पुनरस्मिन्नितरां कलेवरम्।
अथ तस्य कृते कियानयं क्रियते हंत जनैः परिश्रमः ॥२५॥

समस्त संसार नाशवंत है फिर इसमें शरीर तो अत्यंतही (क्षणभंगुर) है; हाय! उसी के निमित्त मनुष्य कितना परिश्रम करते हैं।

प्रतिपलमखिलाँल्लोकान्मृत्युमुखं प्रविशतो निरी क्ष्यापि।
हा हंत किमिति चित्तं विरमति नाद्यापि विपयेभ्यः॥२६॥

प्रति क्षण अखिल जनों को मृत्युमुख में प्रवेश करतेहुए


  1. 'वियोगनी' लंद है।