पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१८५

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विलासः४]
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भाषाटीकासहितः।


ग को प्राप्त हुई लता है"? इस प्रकार संशय में निमग्रहा चतुर (मारुतसुत) कपि ने दीर्घ निश्वासों से निरणय किया कि यह वियोगनी (सीता) है। इसमें निश्चयात्मक 'संदेह' अलंकार है।

भूतिर्नीचगृहेषु विप्रसदने दारिद्र्यकोलाहलो
नाशो हंत सतामसत्पथजुषामायुः समानां
शतम्। दुर्नीतं तव वीक्ष्य कोपदहनज्वालाज
टालोऽपि सन् किं कुर्वे जगदीश यत्पुनरहं
दीनो भवानीपतिः॥३७॥

नीचके घरमें संपत्ति (और) ब्राह्मणके गृहमें अखंड दरिद्र (दिया); सत्पुरुषोंको नाश (और) असत्पथगामीजनों को शतायु (किया); हे जगदीश! हाय, ऐसी तेरी अनीतिको देख कोपाग्निसे प्रज्वलित होकर भी मैं क्या कर सकता हूँ? तू ने तो साक्षात् शंकरको (भी) दीन किया है!

आमूलाद्रत्नसानोर्मलयवलयितादा च कूला-
त्पयोधेर्यावतः संति काव्यप्रणयनपटवस्ते
विशंकं वदंतु। मृद्वीकामध्यनिर्यन्मसृणरसझ-
रीमाधुरीभाग्यभाजां वाचामाचार्यतायाः पद-
मनुभवितुं कोऽस्ति धन्यो मदन्यः[१]॥३८॥

यहां से जगन्नाथराय कुछ स्वकाव्यप्रशंसात्मक पद्य लि-


  1. 'स्रग्धरा' छंद।