पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/२४

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(४)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।


तेरे निकट ही भ्रमर मंजु गुंजार करते रहैं परन्तु यह तेरा दूसरा बंधु पवन अनपेक्षित होकर भी तेरी सौरभ को सर्व ओर ले जाता है (अर्थात् भ्रमर अपेक्षित होकर केवल अपना ही अर्थ सिद्ध करके तेरे निकटही तेरी प्रशंसा करते हैं दूर नहीं जाते;) परन्तु पवन को तेरी सौरभ ग्रहण करने की इच्छा भी नहीं तथापि वह उस को लेकर स्वयं सुगंधित हो दूसरों कोभी उससे लाभ पहुचाता है और अनेक दिशाओं में भ्रमण करता हुआ तेरे गुण को प्रकट करता है।) कोई ऐसे होते हैं कि अपने अर्थ लाभ उठाकर जिससे लाभ हुआ उसका वहीं कुछ वर्णन करते हैं सो उचित ही है क्योंकि अपने हित का पलटा देना योग्य है परंतु कोई सत्पुरुष निरपेक्षित होकर भी केवल दूसरों के गुण प्रकाश करने को उनकी सेवा में उपस्थित होते हैं और ऐसा करके स्वयं प्रशंसा पात्र हो दुसरों को भी पावन करतें हैं)।

[१]समुपागतवति दैवादवहेलां कुटज मधुकरे माऽगाः॥
मकरंदतुंदिलानामरविंदानामयं महामान्यः॥६॥

हे कुटज, [अल्प मकरंद के धारण करने गले वृक्ष] इस मधुकर की, जो दैवयोग से तेरे निकट आगया है, हेलना न कर यह रससे समूह सेंचु चुहाते कमलों को भी महा मान्यहै (इस प्रकार अप्रस्तुत कुटज वृत्तांत वर्णन करके इस अन्योक्ति से


  1. आर्या छंद है।