पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/२६

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(६)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

अत्यंतसरसहृदयो यतः परेषां गुण[१]गृहीतासि॥९॥

हे कूप "मैं नीचा अर्थात् अधोभागस्थित हूं" ऐसां समुझ चित्त में खेद न कर क्योंकि तू अत्यंत सरस हृदय और दूसरों के गुण का ग्रहण करनेवाला है (यदि कोई नीच कुल में जन्म पाकर गुणग्राहक और सरस हृदय है तो उसको अपने नीचत्व पै खेद न करना चाहिए, गुणग्राहता और दया यह मनुष्य के प्रधान गुणा हैं)

येनामन्दयरन्दे दलदरविन्दे दिनान्यनायिषत॥
कुटजे खलु तेनेहा तेने हा मधुकरेण कथम्॥१०॥

जिस मधुकर ने मधुसमूहसंयुक्त प्रफुल्लित कमल में अपने दिन व्यतीत किये उसने कुटज वृक्ष पर जाने की हाय! कैसे आकांक्षा की (महादानी जनौं अथवा राजाओं के निकट बहुतकाल तक रहकर यदि कोई पंडित अथवा कवि किसी साधारण मनुष्य की याचना करने को गया तो उसके मूलकी इस अन्योक्ति से सूचना करनी चाहिये)

अयि मलयज महिमाऽयं कस्य गिरामस्तु विपयस्ते।
उद्गिरतो यद्गरलं फणिनः पुष्णासि परिमलोद्गारैः११॥

हे मलयज! [चंदन] तेरी महिमा कौन वर्णन कर सकता है जो सर्प तेरे ऊपर गरल वमन करते हैं


  1. गुण (रस्सी) यहां द्वयर्थिक है।