[डालते हैं] उन्ही को तू (दंड न देकर उलटा) अपनी सुगंध से पोषित करता है' (साधुजनों के साथ अपकार भी करने से वे उपकारही मानते हैं)
पाटीर तव पटीयान् कः परिपाटीमिमामुरीकर्तुम्॥
यत्पिंषतामपि नृणां पिष्टोऽपि तनोषि परिमलैः पुष्टिम्॥१२॥
हे पाटीर [चंदन] तेरी परिपाटी [पद्धति] को ग्रहण करने में कौन समर्थ है? जो तुझे पीसते हैं उन्हें भी अपने चूर्ण की सौरभ से तू पुष्ट करता है! (सज्जनों को यदि कोई दुःख भी देवै तो वे दुःख देनेवाले को उसके अपकृत्य पर ध्यान न देकर पलटे में सुखही देते हैं)
नीरक्षीरविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत्।
विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः॥१३॥
हे हंस यदि नीर से क्षीर को विलग करने में तूही आलस्य करेगा तो फिर इस संसार में और दूसरा कौन अपनी कुलकानि [कुलकी परिपाटी] का पालन करेगा (यदि राजा महाराजा अथवा सज्जन पुरुष ही उत्तम कार्य करने में अथवा अपनी मर्यादा के पालन में आलस करेंगे तो फिर साधारण मनुष्य रीति तथा नीति विरुद्ध करने में क्यों सुकचैंगे)