परंतु जो निराश्रित हैं उनकी क्या दशा होगी? उनको तो और कंही विश्राम लेने का ठौरही नहीं?)
मधुप इव मारुतेऽस्मिन् मा सौरभलोभमम्बुजनिमंस्थाः॥
लोकानामेव मुदे महितोऽप्यात्माऽमुनार्थितां नीतः॥१८॥
हे कमल! जिसप्रकार तू अपनी सौरभ का लोन भ्रमरों से करता है (अर्थात् भ्रमरों के त्रास से रात्रिमें मुकुलित होकर उन्हें अपनी सौरभ अथवा पराग नहीं लेने देता) वैसा पवन से न कर; इसने लोकोपकारार्थ अपनी श्रेष्ठ आत्मा तक भी याचकों को दे दिया है (अर्थात् जीवमात्र को सुगंधित करताहै) तात्पर्य-अपर याचकों को दान देने से दाता चाहै अपना मुख मौरै परंतु कवि जनों के साथ वैसा व्यवहार उचित नही क्योंकि वे दातृत्व का वर्णन देश देशांतरों में करते हैं।
गुंजति मंजु मिलिंदे मा मालात मानमौनमुपयासीः।
शिरसा वदान्यगुरवः सादरमेनं वहन्ति सुरतरवः१९॥
हे मालति! भ्रमरों के मंजु गुंजार करने पर तू मान तथा मौन धारण न कर (अर्थात् उनको अपना रस लेनेदे) क्योंकि ये महादानी कल्पवृक्ष को भी शिरसा वंद्य हैं (अल्प धनवानों के पास यदि दैवयोग से कोई गुणीजन आजावै