तो उनको दान देने मे सकुच न करनी चाहिये क्योंकि बडे बड़े राजा महाराजा भी उनका सत्कार करते हैं)
यैस्त्वं गुणगणवानपि सतां द्विजिह्वरसेव्यतां नीतः॥
तानपि वहसि पटीरज कि कथयामस्त्वदीयमौन्नत्यम्॥२०॥
हे चंदनवृक्ष! जिन सर्पो नें तुझ गुणवान् को सज्जनों की सेवा के योग्य न रक्खा (अर्थात तुझे सर्प सहित देख सत्युरुषोंको तेरे निकट आने में भय उत्पन्न किया) उन्हीं को तू धारण कियेहुए है इससे तेरी योग्यता का वर्णन कैसे कर सकताहूं? (दुष्टों को भी एक वार ग्रहण करके त्याग नहीं करता इससे प्रशंसनीयहै अथवा व्याज स्तुति भी सूचित होती है कि तू अविवेकी है क्योंकि सदैव अपने निकट सोको स्थान देता है जिससे साधुजन भय के मारे तेरे पार्श्ववर्ती नहीं होते किसी मनुष्य की कुसंगति वरणन करने में दोनों प्रकारके अर्थों का प्रयोग हो सकता है)
गाहितमखिलं गहनं परितो दृष्टाश्च विटपिनः सर्वै। सहकार न प्रपेदे मधुपेन भवत्समं जगति॥२१॥
हे आम्रवृक्ष! मधुप ने सारा वन ढूंढा और आस पास के सर्व वृक्ष देखे परंतु तेरे समान उसे दूसरा न मिला (किसीकी भी प्रशंसा करने में इस अन्योक्ति का उपयोग हो सकताहै)