पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४३

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विलासः१]
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भाषाटीकासहितः।

हे वर्षा ऋतु की नदि! गंगा के प्रवाह में जाने को मैं तुझे निषेध नहीं करता परंतु उसकी तरंगों को तुझे अंग न करना चाहिए (बड़े बड़े विद्वज्जनों की सभा में अल्पज्ञानी पंडितों का जाना अनुचित नहीं परंतु वहां अपनी चातुर्यता बतलाकर उनकी विद्वत्ता को लोप करने का प्रयत्न कदापि न करनाचाहिए। इस अन्योक्ति का कई प्रसंगों में उपयोग हो सकता है)

पौलोमीपतिकानने विलसतां गीर्वाणभूर्मारिहां।
येनाघ्रातसमुज्झितानि कुमुमान्याजघ्रिरे निर्जरैः॥
तस्मिन्नद्य मधुव्रते विधिवशान्माध्वीकमाकांक्षति।
त्वं चेदंचसि लोभमम्बुज तदा किं त्वां प्रतिब्रूमहे४६

हे अंबुज! जिस मधुकरने इन्द्र के नंदनवन में लगे हुए देवद्रुमों के पुष्पों की सुगंध, देवताओं की नासिका तक पहुं चने के पहिलेही ले ले कर छोड़ दिया, दैववशात् अब तुझ से मकरंद पाने की इच्छा करने वाले उसी यधुकर से यदि तू अपने मकरंद का लोभ करता है तो मैं तुझ से क्या कहूं (यदि किसी महान पंडित ने दैवयोग से राजद्वार छोड़ किसी सामान्य पुरुष के पास आय कुछ याचना की और उसकी ओर ध्यान न दिया तो याचक का क्या गया, जिससे याचना की उसी की मान हानि हुई ऐसा समझना चाहिए)।

प्रारम्भे कुमुमाकरस्य परितो यस्योल्लसन्मंजरी।


१ उपेन्द्रवज्रा।