पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४२

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(२२)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

न तृष्णामार्त्तानां हरसि यदि कासार सहसा॥
निदावे चंडांशौ किरति परितोंऽगारनिकरं।
कृशीभूतः केषामहह परिहतासि खलु ताम्॥४३॥

हे कासार! [सरोवर] अपनी सलिलरूपी संपत्ति से जो तू इस समय में पिपासाकुलितों की तृष्णा नहीं हरण करता है तो फिर ग्रीष्म ऋतु में प्रचंड सूर्य के सर्व और बरसाय हुए अंगारों से शुष्क हो जाने पर किसकी पिपासा शांत करैगा? (धनवान होकर यदि दान न दिया तो निर्धनत्व को प्राप्त होने से याचकों की इच्छा कैसे पूरणहो सकैगी?)

अयि रोषमुरीकरोषि नो चेत् किमपि त्वां प्रति वारिधे वदामः।
जलदेन तवार्थिना विमुक्तान्यपितोयानि महान् न हा जहासि॥४४॥

हे वारिथे? [समुद्र यदि तू रोष न करै तो मैं तुझ से कुछ कहूं। (कहना यहि है कि) तू महान होकर भी अपने याच क मेघ के त्यागे हुए जल को नहीं छोडता? (जिस वस्तु को एक वार किसी को देडाला उसे फिर फेर लेना सत्पुरषों को न चाहिये)

न वारयामो भवंती विशंतीं।
वर्षानदिस्रोतसि जन्हुजायाः॥
न युक्तमेतत्तु पुरो यदस्या।
स्तरंगभंगान्प्रकटीकरोपि॥४५॥