पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४६

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[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

अद्य तेन हरिणान्तिके कथं।
कथ्यतां नु हरिणा पराक्रमः॥५१॥

जिस सिंह ने करिकुंभ[१] को विदारण करके उससे गिरे हुए गजमुक्ताओं से पृथ्वी को परिपूरित किया वह अब हरिणों के मारने में अपने पराक्रम को भला किस प्रकार वर्णन करैगा? (बड़े बड़े बली शत्रुओं के शिरश्छेदन करनेवाले वीर पुरुष सामान्य वैरीकें उपर हाथ नहीं उठाते)

स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण सखे।
गजश्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां वनभुवि॥
असौ कुम्भिंभ्रान्त्या खरनखरविद्रावितमहा।
गुरुग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः॥५२॥

अरे मदांध, मित्र, गजश्रेणी नाथ [गजेंद्र]! तू इस गहनवनभूमि में क्षणमात्र भी न ठहर; (क्योंकि) हस्तीकी शंका करके बड़े बड़े पत्थरों के ढेर को भी अपने तीक्ष्ण नखौंसे विदारण करके इसकी गिरिगहामें सिंहराज शयन करता है (महा प्रबल महीप जिसे शत्रु का उत्कर्ष किंचित भी सहन नहीं होता. उसके राज्य में अपने बल के गर्वसे आए हुए अल्पवैभव वाले राजा का वृत्तांत है)

गिरिगह्वरेषु[२] गुरुगर्वगुम्फितो।
गजराजपोत न कदापि सञ्चरेः॥


  1. हस्तीका मस्तक।
  2. मंजुभाषिणी छंद है।