विदुषां वदनाद्वाचः सहसा यांति नो बहिः॥
याताश्चेन्न पराञ्चन्ति द्विरदानां रदा इव॥६५॥
विद्वानों के मुख से सहसा [बिना विचारे] कोई शब्द नहीं निकलता यदि निकला तो हाथी के दंत समान निकल कर परामुख (मिथ्या) नहीं होता. (भाव सरल है--इसमे 'पूर्णोपमा' अलंकार जानना)
औदार्यं भुवनत्रयेऽपि विदितं संभूतिरम्भोनिधे।
र्वासो नन्दनकानने परिमलो गीर्वाणचेतोहरः॥
एवं दातृगुरोर्गुणाः सुरतरोः सर्वेऽपि लोकोत्तराः।
स्यादर्थिप्रवरार्थितार्पणविधावेको विवेको यदि॥६६
हे सुरतरु! उदारता तेरी त्रिभुवन में विदित है, उत्पत्ति तेरी सागर से है, निवास तेरा नन्दनवन में है, सुगंध तेरी देवताओ के भी चित्त को हरण करती है। इस प्रकार तुझ दान श्रेष्ठ के ये गुण, यदि तू याचकौ की इच्छा पूर्ण करने में विवेक को धारण करता तो परमोत्तम होते (याचक दान लेने के योग्य हैं अथवा नही इस का विचार न करना दाताओं को उचित नहीं)
एको विश्वसतां हराम्यपघृणः प्राणानहं प्राणिना।
मित्येवंपरिचिन्त्य मा स्वमनसि व्याधाऽनुतापंकृथाः।
भूपानां भवनेषु किंच विमलक्षेत्रेषु गूढाशयाः।