नीरान्निर्मलतो जनिर्मधुरता वामामुखस्पर्धिनी।
वासो यस्य हरेः करे परिमलो गीर्वाणचेतोहरः॥
सर्वस्वं तदहो महाकविगिरां कामस्य चाम्भोरुह।
त्वंचेत् प्रीतिमुरीकरोषि मधुपेतत्त्वां किमाचक्ष्महे६३
हे कमल! उत्पत्ति तेरी निर्मल जलसे है, मधुरता तेरी स्त्रीमुखमाधुर्य की भी ईर्षा करती है वास तेरा नारायण के हाथ मे है, सुगंध तेरी देवताओं के चित्त को हरण करती है और स्वयं तु महा कवियोंकी वाणी तथा कामदेव का सर्वस्व है (इतने अपूर्व गुण तुझमे होकर भी) तू मधुप से प्रीति रखता है (तस्मात्) अब हम तुझ से क्या कहैं? अर्थात् तू नितांत श्रेष्ठ है (सत्पुरुष उच्च पदवी को प्राप्त होने पै लघु जनो से घृणा नहीं करते किंतु यदि वे किसी कार्यार्थ उनके निकट आवे तो उचित सत्कार करके उनकी इच्छा पूर्ण किरते है)
लीलामुकुलितनयनं किं सुखशयनं समातनुषे॥
परिणामविषमहरिणा करिणायक वर्द्धते वैरं॥६४॥
हे गजेन्द्र! प्रेम से नेत्रों को बंद करके तू आनंद से क्यों शयन करता है? (अरे तू नहीं जानता कि) परिणाम में विष मता [प्राणनाथ] को पहुचाने वाला सिंह वैरभाव बढ़ता जाता है! (पर राज्य मे आकर निश्चिंत हो विलासानंद मे निमग्न होनेवाले राजा को कोई सत्पुरुप उपदेश देता है। इस अन्योक्ति का उपयोग कई प्रसंगों में हो सकता है)