धत्ते भरं कुसुमपत्रफलावलीनां मर्मव्यथां स्पृशति शीतभवां रुजञ्च॥
यो देहमर्पयति चान्यसुखस्य हेतोस्तस्मै वदान्यगुरवे तरखे नमोऽस्तु॥९४॥
जो (परोपकारार्थ) फल, फूल, और पत्रों के भार को धारण करता है, मर्मस्थानों की वेदना (शाखा इत्यादिकके काटने के दुःख) तथा (आधिक) शीत पड़ने से उत्पन्न हुए रोगों को सहन करता है और दूसरों के सुख के हेतु अपने शरीर तक को अर्पण करता है उस दानशूर वृक्ष को मै नमस्कार करता हूं (संतत परोपकार करनेवाले सत्पुरुषों का स्वभाव तरुवरोंहीं का सा होता है)
हालाहलं खलु पिपासति कौतुकेन कालानलं परिचुचुम्विषतिं प्रकामम्॥
व्यालाधिपञ्च यतते परिरब्धुमदा यो दुर्ज्जनं वशयितुं कुरुते मनीषाम्॥९५॥
जो मनुष्य दुर्जन के वश करने की बुद्धिको उपराजता है वह (मानौ) हलाहलको पान, कालाग्नि को भली भांति चुंबन और प्रत्यक्ष भुजंगराज को आलिंगन करने की इच्छा करता है (दुष्ट के वशीकारण का यत्न करने से मनुष्य नाश को प्राप्त होता है यह भाव)
दीनानामिह परिहाय शुष्कसस्यान्यौदार्य्यं प्र-