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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/६८

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[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

कटयतो महीधरेषु॥ औन्नत्यं परममवाप्य दुर्म्मदस्य ज्ञातोऽयं जलधर तावकोऽविवेकः[]॥९६॥

हे जलधर! दीनजनों के शुष्क धान्य (के खेतों) को त्याग करके पर्वतों के ऊपर अपनी उदारता को प्रकट करनेबाले और अत्यंत उन्नतता को प्राप्त होनेवाले तुझ दुर्मद का अविवेक मुझको विदित है पात्रापात्र का विचार न करके दान देनेवाले भूपति अथवा अपर दानी मनुष्य का वृत्तांत ध्वनित होता है

गिरयो गुरवस्तेभ्योऽप्युर्व्वी गुर्वी ततोऽपि जगदण्डम्॥
तस्मादप्यतिगुरवः प्रलयेप्यचला महात्मानः॥९७॥

पर्वत श्रेष्ठ हैं, पर्वतों से पृथ्वी श्रेष्ठ है (क्योंकि पृथ्वी पर्वतों को धारण करती है); पृथ्वी से ब्रह्मांड श्रेष्ठ है (कारण ब्रह्मांड पृथ्वीका आधार है); ब्रह्मांड से महात्माजन श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे प्रलय काल में भी अचल रहते हैं अर्थात् उस समय से भी उनका नाश नहीं होता (इस आर्या में उत्तरोत्तर श्रेष्ठत्व वर्णन किया इससे 'सार' अलंकार हुआ)

व्योन्नि स वासं कुरुते चित्रं निर्माति सुन्दरं पवने॥
रचयति रेखाः सलिले चरति खले यस्तु सत्कारम्॥९८॥


  1. प्रहर्षिणी' वृत्त।