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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/७०

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(५०)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

वदनही रहती है; तू चंचल है (अर्थात् तेरी चित्तवृत्ति चपल है, आज एक पुष्प पै कल दूसरे पै रमण करता है,) इतने पै भी वह सरस [रसवती] रहती है। (अनुरागादि गुणौं से युक्त अपनी सती स्त्री को त्यागनेवाले कामी पुरुष का वर्णन है तात्पर्य यह कि ऐसी सुलक्षण रमणी का परित्याग उचित नहीं! प्रस्तुत कमलिनी का वृत्तांत अप्रस्तुत नायिकाके वर्णन में घटित होताहै इससे 'समासोक्ति' अलंकार हुआ)

स्वार्थं धनानि धनिकात् प्रतियह्णतो यदास्यं भजेन्मलिनतां किमिदं विचित्रम्।
गृह्णन्परार्थमपि वारिनिधेः पयोपि मेघोयऽमेति सकलोऽपि च कालिमानम्॥१०१॥

अपने हेतु धनवानों से(याचना पूर्वक)धन ग्रहण करने वाले मनुष्य के मुख का मलिन होना कुछ आश्चर्यजनक नहीं; (देखिए) परार्थ भी सागरसे (धन संपत्ति तो दूर रही परंतु) जल भी लेने से संपूर्ण मेघ कालिमा [कृष्णवर्णत्व] को प्राप्त होते हैं। (यथार्थ है, संसार मे मांगने से नीच पदार्थ दूसरा नहीं, इस श्लोक मे 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार है)

जनकः सानुविशेषो जातिः काष्ठं भुजङ्गमैः सङ्गः।
स्वगुणैरेव पटीरज यातोसि तथापि महिमानम् १०२

हे चंदनवृक्ष! पिता तेरा पर्वत का शिखर है, जाति तेरी काष्ठ की है, संग तेरा भुजंगमौं [सर्पौं] का है; तथापि (इत-