पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
विलासः१]
(५७)
भाषाटीकासहितः।

एत्य कुसुमाकरो मे संजीवयिता गिरं चिरं मनाम्।
इति चिंतयतो हृदये पिकस्य समधायि शौभिकेन शरः॥११४॥

वसंत के आने से मैं (अपनी) पुनरुज्जीवित की गई (मनोहर) वाणी में (फिर) चिरकाल पर्य्यंत मग्न हो जाऊंगी इस प्रकार विचार करनेवाली कोकिल के हृदय में व्याधनें शर मारा (मनमोदक घरेही रहे, उलटा प्राण गया यह भाव)

निर्गुणः शोभते नैव विपुलाडंबरोपि ना।
आपातरम्यपुष्पश्रीशोभिता शाल्मलिर्यथा॥११५॥

(भूमि पै) पतन होने पर्य्यंत रमणीय सुगंधहीन पुष्पोंसे शोभित शाल्मली[१] वृक्ष के सदृश विपुल आडंबर [बनावट] करने से भी मनुष्य शोभा को नहीं प्राप्त होते (मनुष्य का परम भूषण तो गुण है यदि वही नहीं तो वस्त्रालंकारोसे कितनी शोभा हो सकेगी इसमें 'पूर्णोपमा' अलंकार है)

पंकैर्व्विना सरो आति सदः खलजनैर्व्विना।
कटुवर्णैविना काव्यं मानसं विषयैर्विना॥११६॥

पंक [कीच] के बिना सरोवर की, दुर्जनों के बिना सभा की, कठोर वर्णों के बिना काव्य की और विषय वासना के


  1. शाल्मली (सेयर) उस वृक्षका नाम है जिसमें रेशमके समान एक प्रकारकी रुई निकलती है।