पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/७८

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(५८)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।


बिना मन की शोभा होती है (इसमें 'दीपक' और 'विनोक्ति' अलंकार का संकर है। 'शोभा' शब्द का अर्थ कई स्थानो में बिना उसके प्रयोग कियेही भासित होने से 'दीपक' और सर्व उदाहरणों में कुछ न्यूनता होने की अवश्यकता प्रकट करने से 'विनोक्ति' अलंकार हुआ)

तत्त्वं किमपि काव्यानां जानाति विरलो भुवि।
मार्मिकः को मरंदानामंतरेण मधुव्रतम्॥११७॥

संसार में काव्य के दुर्बोध भावौं को विरलेही जानते हैं, मधुप के विना मकरंद के मर्मको कौन जान सकता है? अर्थात् कविताके गट तत्त्वोका ज्ञान पंडितोंही को होता है (इसमें मधुपके दृष्टांतसे अर्थको दृढ़ किया इससे 'अर्थांतरन्यास' अलंकार हुआ)

सरजस्कां पांडुवर्णां कंटकप्रकरान्विताम्।
केतकीं सेवसे हंत कथं रोलंब निस्त्रप॥११८॥

हे निर्लज्ज मधुकर! रजःकणको धारण करनेवाली, पांडुवर्ण, कंटक समूह युक्त केतकी की, हाय तू कैसे सेवा करता है? यह श्लोक व्द्यर्थ सूचक है; पक्षांतर में 'सरजस्कां' से रजस्वला! 'पांडुवर्णां' मे पीतवर्णा और 'कंटकप्रकारन्विताम्' से रोमांचवती स्त्री समुझना चाहिए (अप्रस्तुत भ्रमर वृत्तांत वर्णन से रजस्वला रमणी का संग करनेवाले कामी पुरुषका वृत्त प्रतीत होता है)