यथा तानं विना रागो यथा मानं विना नृपः।
यथा दानं विना हस्ती तथा ज्ञानं विना यतिः॥११९॥
जैसे तान के बिना राग, मान [आदर] के बिना नृप और मदोदक के बिना हस्ती (शोभा नहीं पाता) वैसेही ज्ञान के बिना यती [संन्यासी] सुशोभित नहीं होता (इसमें विनोक्ति' और 'उपमा' अलंकार की संसृष्टि है)
संतः स्वतः प्रकाशंते गुणा न परतो नृणाम्।
आमोदो नहि कस्तूर्य्याः शपथेन विभाव्यते॥१२०॥
मनुष्यों के सद्गुण स्वयं ही प्रकाश होते है, न कि दूसरों (के प्रकाश करने ) से! कस्तूरी की सुगंध शपथ (पूर्वक कहने) से नहीं जानी जाती अर्थात् जहां कस्तूरी होती है वहां उसकी परिमल आपही आप प्रकट होती है (मनुष्यों के उत्तम गुणौ का वर्णन करके कस्तूरी के दृष्टांतसे अर्थ को दृढ़ किया इससे 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार हुआ)
अपि बत गुरुगर्व्वं मास्म कस्तूरि यासीरखिलपरिमलानां मौलिना सौरभेण।
गिरिगहनगुहायां लीनमत्यंतदीनं स्वजनकममुनैव प्राणहीनं करोषि॥१२१॥
हे कस्तूरिके! अखिल परिमलों में श्रेष्ठ होने से तू (अपने मन में) इतना गर्व न कर; हाय! (क्या तू नहीं जानती) कि इसी सौरभ से तू, पर्वत की अंधेरी गुहा में लीन हुए